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सोशल मीडिया

शोसल मीडिया प्लेटफार्म पर पर्सनल डेटा चोरी/ लीक होने पर क्या फर्क पड़ेगा. पढ़िए एक्सपर्ट की राय@hillvarta

28 जनवरी को डेटा प्रोटेक्शन डे के रूप में मनाया जाता है फिलहाल यह यूरोपियन सहित कुछ देशों तक ही सीमित है । जिस तरह हाल में शोसल मीडिया प्लेटफॉर्म द्वारा निजी जानकारियां लीक होने और निजी जानकारी शेयर न करने देने पर प्लेटफार्म से बाहर हो जाने की बात की जाने लगी है, डेटा को लेकर लोगों की चिंताएं बढ़ना लाजमी है ।

इसी तरह की चिंताओं से ग्रसित देशो ने 15 साल पहले ही इसकी मजम्मत की और सुरक्षित रास्ता चुना ।

26 अप्रैल 2006 को यूरोपियन देशों की एक कमेटी ने अपना निजी डेटा सुरक्षित रखने के लिए 28 जनवरी हर वर्ष “डाटा प्रोटेक्शन डे ” के रूप में मनाने का फैसला किया । यूरोपियन यूनियन के देशों के अलावा कनाडा और इस्रायल ने भी अपने नागरिकों के डेटा सुरक्षित रखने के कड़े कानून बनाये हैं । जबकि अपने देश मे इस तरह का कोई कानून नहीं है । आपकी हमारी निजता इस डिजिटल युग मे बची रहे यह बड़ी समस्या है । पेशे से अध्यापक, समसामयिक विषयों पर लगातार लिख रहे प्रेम प्रकाश उपाध्याय का डेटा प्रोटेक्शन पर विस्तृत लेख हिलवार्ता को शेयर किया है जिसे हम हूबहू आप तक पहुचा रहे हैं ।

व्हाट्सएप और फेसबुक का निजता पर हमला व इसकी अहमियत

नैतिक पहलुओं की चिंता किए बिना हम विज्ञान एवं तकनीक को आगे नहीं बढ़ा सकते हैं. -बिल जॉय (सन माइक्रोसिस्टम के पूर्व सह संस्थापक)पिछले दिनों लोकप्रिय मैसेजिंग प्लेटफॉर्म व्हाट्सएप द्वारा यूजर्स के निजी डाटा को फेसबुक के साथ साझा करने की नई विवादित पॉलिसी प्रकरण के बाद लोगों के बीच यह चिंता पैदा हो गई है कि आखिर हमारा निजी डाटा कितना सुरक्षित है और क्या उसे बगैर हमारी अनुमति के कोई भी उपयोग कर सकता है? आज ‘डाटा प्रोटेक्शन डे’ या ‘डाटा प्राइवेसी डे’ के अवसर पर आइए समझने की कोशिश करते हैं डिजिटल डाटा की अहमियत और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स, कॉर्पोरेट कंपनियों की चालबाजी की परतों को.

डाटा प्रोटेक्शन डे मनाने का मकसद है अपने निजी डाटा की सुरक्षा को लेकर लोगों को जागरूक बनाना. 26 अप्रैल, 2006 को काउंसिल ऑफ यूरोप ने यह निश्चित किया था कि हर साल 28 जनवरी को डाटा प्रोटेक्शन डे के तौर पर मनाया जाएगा.

डिजिटल टेक्नोलॉजी में हुई तीव्र प्रगति ने न केवल हमारी ज़िंदगी को आसान बनाया है, बल्कि जीवन शैली में सुधार के साथ देश-दुनिया के विकास को भी एक नया आयाम प्रदान किया है. भारत में आज 70 करोड़ से ज़्यादा इंटरनेट यूजर्स हैं. और वे किसी न किसी रूप में डिजिटल सेवाओं से जुड़े हैं. इंटरनेट पर उनका डेमोग्राफिक डाटा किसी न किसी रूप में मौजूद है. हमारा निजी डाटा कॉर्पोरेट कंपनियों द्वारा प्रति क्षण इकट्ठा किया जा रहा है और साथ ही साथ प्रोसेस भी किया जा रहा है- मोबाइल और कंप्यूटर ब्राउजिंग करते समय, ऑफिस में, स्कूल कॉलेज में या किसी सार्वजनिक जगह पर, कोई प्रॉडक्ट या सर्विस खरीदते वक्त, सरकार द्वारा, कॉर्पोरेट कंपनियों द्वारा, घूमते-फिरते वक्त भी! ये महज कुछ उदाहरण हैं. दरअसल, डाटा आज की सबसे जरूरी चीजों में से है. हमारी रोज़मर्रा की ज़्यादातर गतिविधियों में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका है. या तो इन गतिविधियों से डाटा पैदा होता है या उसका इस्तेमाल होता है.
डाटा का अर्थ उस सूचना से है, जो डिजिटल प्लेटफॉर्मों के इस्तेमाल करने पर पैदा होती हैं. आज गूगल, फेसबुक, ब्लॉग, ट्विटर, व्हाट्सएप और दूसरे तमाम ऑनलाइन प्लेटफॉर्म हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा बन चुके हैं. जहां इन सभी प्लेटफॉर्म ने हमें अभिव्यक्ति के मजबूत मंच प्रदान किए हैं, वहीं यहां कुछ खास कंपनियों का ही वर्चस्व चल रहा है. और ये कंपनियां हमारी गोपनीयता का उतना ख्याल नहीं कर रहीं हैं, जितनी इन्हें करनी चाहिए.

‘इफ यू आर नॉट पेइंग फॉर द प्रॉडक्ट, यू आर द प्रॉडक्ट’
फेसबुक, गूगल, ट्विटर, व्हाट्सएप आदि कंपनियां अपनी सेवाओं के लिए यूजर से एक भी रुपये नहीं लेतीं, मुफ्त हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि इन कंपनियों को चलाने के लिए पैसा कहां से मिलता है. दरअसल हमें यह समझना होगा कि दुनिया के किसी भी कोने में मुफ्त नाम की कोई भी चीज नहीं होती, पीछे से जेब में हाथ डाला ही जाता है. इसको समझने के लिए अर्थशास्त्र की फ्री-मार्केट कैपिटलिज्म थ्योरी को समझना होगा. भले ही ये ऑनलाइन प्लेटफॉर्म खुद को मुफ्त बताते हों, मगर इनकी ज्यादातर कमाई का स्रोत यूजर्स की निजी जानकरियां या डाटा हैं जिसे वे अपनी सहायक कंपनियों को बेच देते हैं और फिर वे इस डाटाबेस का इस्तेमाल विज्ञापन टारगेट करने के लिए करते हैं.
ये कंपनियां यूजर्स के डेमोग्राफिक डाटा के साथ-साथ उनके काम-काज, उम्र, लिंग, स्थान, पसंद-नापसंद, वैवाहिक स्थिति, आर्थिक स्थिति, राजनीतिक झुकाव, रहन-सहन और फ्रेंड सर्कल आदि बेहद निजी जानकारियों को सहेज कर रखती हैं.

यूजर के बारे में जितना डाटा जिस कंपनी को मालूम होगा उसकी विज्ञापन प्रणाली उतनी ही ज्यादा प्रभावी होगी. सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों द्वारा इकट्ठी की जाने वाली ये जानकारियां जूते, कॉस्‍मेटिक्स, ब्रांडेड कपड़े, गैजेट्स आदि हजारो ऐसे चीजें बनाने वाली कंपनियों के लिए बेहद मूल्यवान साबित होती हैं. इन्हीं डाटाबेस के जरिये उन्हें अपने वास्तविक ग्राहक वर्ग का पता चलता है. इन कंपनियों के लिए यूजर्स डाटा उगाही का कारख़ाना (फैक्टरी) भर हैं, जिनको बहला-फुसलाकर ज्यादा से ज्यादा डाटा उगलवाना इनका मकसद है!

इसलिए ऐसी सेवाओं के लिए अक्सर कहा जाता है कि अगर आप किसी प्रॉडक्ट के लिए पैसे नहीं देते तो आप खुद ही प्रॉडक्ट हैं. यह पढ़कर आपको हाल ही में नेटफ्लिक्स पर आई डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म ‘सोशल डाइलेमा’ की यह पंक्तियां याद आ सकती हैं: ‘इफ यू आर नॉट पेइंग फॉर द प्रॉडक्ट, यू आर द प्रॉडक्ट.’ कहने का लब्बोलुबाब यह है कि जैसे अगर आप सोचते हैं कि मैं फेसबुक का मुफ्त में उपयोग करके कितना फ़ायदा उठा चुका हूं, लेकिन फेसबुक की निगाह में आप उसके ग्राहक नहीं हैं. उसके असल ग्राहक हैं वे विज्ञापन प्रदाता कंपनियां, जिन्हें वह आपका डाटा बेचता है! कोई और जमाना होता तो शायद अथाह डाटा को फिजूल मानकर अनदेखा कर दिया जाता, मगर आज डाटा को अमूल्य माना जा रहा है और उसका कारण है ‘डाटा-विश्लेषण’ से जुड़ी तकनीकें, जिन्होंने इसका भी विश्लेषण करने, इनके अंदरूनी रुझानों को खोजने, निष्कर्ष निकालने और यहां तक कि लाखों किस्म के मौकों का दोहन करना मुमकिन बना दिया है. आज के इस डिजिटल दौर में वही सबसे ज्यादा शक्तिशाली है, जिसके पास डाटा है और डाटा-विश्लेषण की काबिलियत है.

नई विश्व अर्थव्यवस्था में डाटा की भूमिका वही है जो गाड़ी में तेल (पेट्रोल) की. आज डाटा वह नींव है, जिस पर नए अर्थतंत्र व डीजीतंत्र की इमारत बनाई जा रही है. तकनीकी विशेषज्ञ भी इस बात को मानते है कि इस नए दौर में डाटा में इतनी शक्ति है कि वह एक देश के राजनैतिक भविष्य का कायापलट कर सकता है. साथ ही, वह एक इंसान के तौर पर आपके निजी जीवन को भी प्रभावित कर सकता है. आप और हम जितना डाटा साझा कर चुके हैं, उसके आधार पर हमारा पूरा का पूरा वर्चुअल व्यक्तित्व तैयार किया जा सकता है. आपके बारे में जुटाई गई तमाम जानकारियों को इकट्ठा करके एक ऐसा आभासी व्यक्तित्व तैयार हो जाता है जो आपकी प्रतिकृति (कार्बन कॉपी) होती है, बस उसका शरीर नहीं होता.

अब इसका व्यावसायिक, राजनैतिक या किसी भी दूसरे तरीके से इस्तेमाल करने के लिए ये संस्थान स्वतंत्र हैं. जब आप उनकी सेवाओं का इस्तेमाल करते हैं तो एक एग्रीमेंट को भी स्वीकार करते हैं, जिसमें प्राय: यह प्रावधान निहित रहता है कि वह संस्था आपका डाटा इकट्ठा करने, अपनी जरूरत के मुताबिक उसका इस्तेमाल करने तथा उसे दूसरों को भी देने के लिए स्वतंत्र होगी. हो सकता है कि आप कहें कि मुझे इससे फर्क नहीं पड़ता. लेकिन जब आपको पता चलेगा कि आपके बारे में वे कितनी जानकारी जुटा चुके हैं तो शायद आपको फर्क पड़े. डायलन करन नाम के एक पत्रकार ने गूगल के पास सहेजे गए अपने निजी डाटा को डाउनलोड करके देखा (डाउनलोड की यह सुविधा सबको उपलब्ध है), तो वे भौंचक्के रह गए. इस डाटा का आकार था: 5.5 गीगाबाइट्स यानी माइक्रोसॉफ्ट वर्ड के करीब 30 लाख डॉक्युमेंट्स के बराबर! याद रखिए, ये आपके ई-मेल या संदेश नहीं हैं. हम आपकी गतिविधियों के आधार पर आपके बारे में इकट्ठा की गई जानकारी की बात कर रहे हैं…। इसीलिए सभी को सजग रहना होगा कि हम सूचनाओं के भवर जल में ना फॅसे,। जब तक आवश्यक , अतिआवश्यक ना हो व्यक्तिगत व महत्त्वपूर्ण, अतिमहत्वपूर्ण सूचनाओं,फोटोज,डेटा,फ़ाइल, इत्यादि चीजो को सांझा करने व अदला-बदली करने से बचना होगा।

हिलवार्ता न्यूज डेस्क के साथ

प्रेम प्रकाश उपाध्याय ‘नेचुरल’
बागेश्वर, उत्तराखंड
( लेखक शैक्षणिक तकनीकी व विभिन्न मीडिया से सरोकार रखते है)

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