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उत्तराखण्ड

मुख्यमंत्री बनाने की फैक्ट्री बना उत्तराखंड,हर दूसरे साल नया मुख्यमंत्री.एक और की तैयारी, त्रिवेंद्र ने दिया इस्तीफा। पूरी खबर@हिलवार्ता पर

By.. O P Pandey:

विगत तीन दिन से उत्तराखंड में चल रही राजनीतिक उठापटक का पटाक्षेप हो गया है शाम 4 बजे त्रिवेंद्र सिंह रावत ने राज्यपाल बेबिरानी मौर्य को इस्तीफा सौप दिया है ।लगभग 4 साल तक मुख्यमंत्री की कुर्सी सम्हाले रावत ने नेतृत्व का आभार जताते हुए कहा है कि केंद्रीय नेतृत्व का फैसला उन्हें मंजूर है । नए मुख्यमंत्री को लेकर कयास जारी हैबताया जा रहा है कि कल होने वाली विधायक दल की बैठक के बाद यह घोषणा की जाएगी

इसे उत्तराखंड का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि 20 साल में बारहवां मुख्यमंत्री बन रहा है । केवल स्व नारायण दत्त तिवारी के अलावा कोई भी नेता अपनी कुर्सी पर पांच साल नहीं टिक पाया । हालांकि तिवारी को भी तत्कालीन कांग्रेस संगठन की तरफ से असुरक्षित करने की पूरी कोशिश की गई थी डेमेज कंट्रोल कहिए या तिवारी का राजनीतिक चातुर्य उन्होंने संगठन के कई लोगों को राज्यमंत्री की कुर्सी थमा अपने पाले कर लिया था और पांच साल पूरे किए । उनके शिवा कोई अपना कार्यकाल पूरा नही कर सका ।

संघ की प्रष्ठभूमि से आए त्रिवेंद्र भी नहीं । दरसल राज्य में ऐसा क्या है कि कोई भी नेता पांच साल से पहले ही विदाई का हकदार हो जाता है । जानकर मानते हैं कि राज्य की तकदीर हमेशा दिल्ली के हाथ में रहना इसका कारण है । उत्तराखंड के साथ छत्तीसगढ़ और झारखंड भी नए राज्य के रूप में अस्तित्व में आए, इन राज्यों में उत्तराखंड की तरह का जोड़तोड़ दिखाई नही देता है । वहां राजनीतिक स्थायित्व बरकरार है । जबकि उत्तराखंड देश मे सबसे अधिक राजनीतिक अस्थिर राज्य की सूची में टॉप पर है ।

उत्तराखंड में अक्सर देखा गया है कि समय समय पर दिल्ली की परिक्रमा करने वाले नेताओं ने जो भी मुख्यमंत्री रहा उसकी टांग खीची ।और कुर्सी की खींचतान जारी रही । राज्य में कोई ऐसा चमत्कारी नेता भी नहीं है जिसकी कुमायूं गढ़वाल में पूर्ण स्वीकार्यता रही हो । उसमे भी जातीय समीकरण के आधार पर ही नेता चुनने की कवायद जारी रही है जबकि पड़ोसी हिमाचल में भी उत्तराखंड के तरह समीकरण होने के वावजूद कभी इस तरह की अस्थिरता नही दिखी ।

राज्य निर्मण से पहले उत्तप्रदेश में रहते दोनों मंडलों को संस्कृति और राजनीतिक रूप से तत्कालीन सत्ताधारियों ने बांटे रखा । राज्य बनने के बाद भी उन्ही दलों की सरकारें यहां बनने से उनके अंतर्मन में राज्य के प्रति कोई संवेदना नही रही । समय समय पर अपने राजनीतिक आकाओं के हित साधना । उनके चहेतों को बोर्डों निगमो में भरकम पद बांटना । उनके चहेतों को उत्तराखंड की सैर करवाना राज्य की परिणति बन गया । कतिपय मीडिया समूह / कारोबारी समूहों का भी राज्य की राजनीति में गहरी पैठ रही है समय समय पर राजनीतिक बदलाव में उनका नाम भी आया है ।

पिछले बीस साल में राज्य सभा मे तक बाहरी व्यक्ति या दिल्ली के संपर्क वाले व्यक्ति को ही टिकट मिलना इस बात को साबित करने के लिए काफी है कि उत्तराखंड दिल्ली के उपनिवेश से ज्यादा कुछ नहीं । बारी बारी सत्तारूढ़ दोनों दलों के साथ कमोवेश यही हुआ है । राज्य की जनता के लिए इनसे इतर कोई राजनीतिक विकल्प न होने की वजह बार बार इन्हीं दलों को सत्ता सौपना और यह कवायद बार बार देखना आदत में शुमार हो गया है ।

बिगत बीस वर्ष में इतने मुख्यमंत्री सैकड़ों राज्यमंत्री, सैकड़ों निगम बोर्डों के अध्यक्षों के शिवा राज्य का अचीवमेंट निल ही कहा जा सकता है । इसका उदाहरण पर्वतीय क्षेत्रों में स्वस्थ्य और शिक्षा की स्थित से समझा जा सकता है जहाँ सेकड़ो की संख्या में स्कूल बंद हुआ और अस्पताल में डॉ नही नियुक्त कर सके । नॉकरशाही अपनी मनमानी करती है कई भ्रष्टाचार के मामलों में लिप्त अधिकारियों पर कभी कार्यवाही हुई भी तो जल्द उसे पहले से बेहतर विभाग में समाहित कर दिया जाना आम बात हो गई । राज्य में कोई काम समय पर नहीं होना नियति बनता गया । राज्य में हुए घोटालों पर किसी तरह की कार्यवाही होना तो दूर न्यायालय के आदेशों की अवहेलना पर अफसरों की लगातार पेशी होना इस बात को पुख्ता करता है कि राज्य की अंदर न नेतृत्व क्षमतावान है न ही जबाबदेह नॉकरशाही ।

मुख्यमंत्री चुनना, चुने हुए विधायकों का काम है, उत्तराखंड में शायद ही दिल्ली की कृपा बिन कभी यह सम्भव हो पाया , शायद ही उन्हें कोई अधिकार है कि अपना नेता चुन सकें । राजनीतिक सुचिता कोशो दूर की बात है सत्ता परिवर्तन की आहट पर खुलामखुल्ला दलबदल आम हो चला है । बीस साल में अगर किसी राज्य की जनता ने उथल पुथल और राजनीतिक अस्थिरता देखी है तो वह है उत्तराखंड । किसी के पास ही शायद इस बात का उत्तर हो कि राज्य में कब कैसे राजनीतिक स्थायित्व आ पायेगा ? कि राज्य में लोकतांत्रिक मूल्यों का सही से निर्वहन हो पायेगा ?

कुल मिलाकर चुनावी राजनीति में राजनीतिक दलों का इस पैतरेबाजी से फायदा होता हो ,लेकिन नुकसान आम आदमी का होता है । देखना होगा उत्तराखंड को जनसरोकारी स्थायी नेतृत्व कब तक मिल पाता है ?

हिलवार्ता न्यज डेस्क

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